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अलार्म नहीं बजा तो भी
अलार्म नहीं बजा तो भी
वे अपने आप
साढ़े पांच बजे उठती हैं
और सीधी काम में लग जाती हैं...
झाडू-पोंछा, चाय-नाश्ता
कर लेती हैं
सब के लिए खाना बनाती हैं
फोन लेती हैं...दरवाजा खोलती हैं
बंद करती हैं...
चाबी वाली गुड़िया की तरह
वे दौड़ती हैं इधर-उधर
तब फास्ट फॉरवर्ड की गई
फिल्म की तरह लगती हैं
वे देती हैं घर को,
घर के हर व्यक्ति को
अपनी जिंदगी में से
उसका-उसका हिस्सा...!
सवा नौ बजे,
घर से निकलने के समय तक
वे पूरी रिक्त हो जाती हैं...
तैय्यार हो कर
सुबह से पकड़ी हुई गति में
दफ्तर निकल पड़ती हैं
गाड़ी पकड़ पाने का,
मनचाही सीट मिलने का आनंद
उनके लिए काफी होता है
वे फिर से भर जाती हैं
और कल थक कर
घर लौटने के समय से लेकर
आज फिर निकलने तक की
पूरी फिल्म रिवाइंड कर
एक दूसरी को
सुनाती रहती हैं ! |
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कविता लिखने का अनुभव जीने का ही एक
समांतर अनुभव है। घटनाओं से अलग होकर,
अनुभावों से अलग होकर, उनमें से मन में
परावर्तित
होने वाली, मन पर कब्जा करने वाली भावनाएं
शब्दों में ढालना...इस पूरी प्रक्रिया में
हम अनुभव के बहुत करीब होते हैं ! वह एक
अशरीरी,
चैतन्यपूर्ण अनुभव है ! और अपनी ही कविताओं
का दूसरी भाषा में अनुवाद करना? वह और एक
बार जीने का, खुद को नए सिरे से निहारने
का एक अद्भुत अवसर है। मेरा यह ताजा अनुभव
है।
ऑल इंडिया रेडिओ द्वारा आयोजित `नॅशनल
सिंपोजियम ऑफ पोएट्स २००२' कार्यक्रम में
हिस्सा लेने का शुभ अवसर मुझे प्राप्त हुआ।
इस सर्वभाषी कविसंमेलन में एक ही मंच पर
सभी भारतीय भाषाओं की कविताएं प्रस्तुत
की गयी। यह अनुभव बहुत रोमांचकारी रहा।
मैंने अपनी मराठी कविता- `प्रिय सखी' बहुत
ही तन्मयता से प्रस्तुत की। पर कोई भी
प्रतिसाद नहीं मिला। अपनी भाषा अपने देश
के सभी लोगों तक नही पहुँच सकती यह जानकर
मैंने अजीब-सा गूंगापन महसूस किया। मगर जब
इसी कविता का हिंदी अनुवाद (श्रीमती संगीता
गुप्ता जी ने किया था) प्रस्तुत किया गया
तब वाह-वाह, तालियों से ऑडिटोरियम गूंज उठा
! मुझे आनंद हुआ कि अनुवाद के जरिए ही क्यों
न हो मैं अपने देश के हर कोने तक पहुँच
सकती हूँ। यह कार्यक्रम जयपुर में संपन्न
हुआ था। कार्यक्रम से लौटते समय मन पर
हिंदी भाषा का पूरा प्रभाव था। अपनी ही
मराठी कविता हिंदी भेस में सामने आने लगी।
`क्यों न मैं ही अपनी चुनी हुई मराठी
कविताओं का हिंदी अनुवाद करूं?' यह खयाल
मन में मंडराने लगा। इसी खयाल में डूबी रही
और अनुवाद होता रहा!
यह प्रक्रिया बहुत ही आनंददायी थी। खुद को
अनुवादक की दृष्टि से देखने, जानने का
अनुभव अनूठा था। मेरे चार मराठी संग्रहों
में से लगभग सौ कविताओं का मैंने अनुवाद
किया। अपनी अनुवाद क्षमता की सीमाओं के
कारण छंदबद्ध कविताओं का अनुवाद मैं नहीं
कर सकी। लेकिन अनुवाद करते समय मैंने अपनी
सोच की आंतरिक यात्रा का नए सिरे से
निरीक्षण किया और महसूस किया की अपनी
कविताओं में मैंने इन्हीं यात्राओं का
कई तरह से जिक्र किया है। मानव-जीवन की
अनुभूतियों का, इनके पीछे होने वाली ऐसी
प्रक्रिया-यात्रा का मार्ग सबके लिए एक
जैसा नहीं होता। प्रत्येक व्यक्ति का
आरंभ-बिंदु अलग, चलने का तरीका अलग, दिशा
अलग, मंजिल अलग...प्रत्येक व्यक्ति अपने
हिस्से की यात्रा का साक्षी रहता है! `मेरे
हिस्से की यात्रा' की कुछ झलकियां इस
संग्रह में दर्ज की हैं ! |
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