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उन्होंने - १
उन्होंने
अनिर्वचनीय को
नाम दे दिया
ताकि
उसे बुला सके
उससे प्रेम कर सके
उसे जान सके...
उन्हें मालूम था
कि `वह'
शब्द से परे है
लेकिन
यह भी
कि `वह'
शब्दसह: भी है !
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उन्होंने - २
उन्होंने
मंदिर बनाकर
प्राणभृत्
अनन्त आकाश को
दीवारों में
सीमित किया
शायद इसलिए कि
नजर ना फट जाए
संपूर्ण आकाश को
ताकते ताकते
फिर उसमें
एक-दो झरोखे
भी बनाए
ताकि
आकाश के
कैद होने का
एहसास बना रहे
और
अनन्तता का
आवाहन
खुला रहे ! |
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प्रस्तावना : डॉ. दामोदर खड़से
इसीलिए शायद : उत्कृष्ट
अभिव्यक्ति |
कविता मनुष्य के भीतर गंध की तरह बसी
होती है । अनुभूति का झोंका जब पास से
गुजरता है, तब अनायास ही गंध महमहाने लगती
है । जानी-पहचानी होने के बावजूद ऐसी गंध
नितांत मौलिक होती है । मनुष्य उसे अपने
भीतर से, भीतर तक महसूस करता है । ऐसी
अनुभूतियां कभी सिमट कर नहीं रह पाती । वे
आसपास को अपने में समेट लेती हैं । इसीलिए
रचनाकार की संवेदनाएं सबकी हो उठती हैं ।
आसावरी काकड़े ऐसी ही कवयित्री हैं,
जिन्होंने अपने शब्दों में स्पंदन भरकर
हमारे आसपास को भीतरी गंध से सींचा है ।
उनकी कविताएं सरल हैं और गहनतम अनुभूतियों
की व्याख्या करती हैं । ऐसी कविताएं जीवन
के अनदेखे-अनचिन्हे सच को उजागर करती हैं
। कितनी सहजता से वे कह
जाती हैं, `हर तूफान । हमेशा खत्म नहीं
करता हमें । कभी-कभी वह । पत्तों जैसा
उड़ाकर । पहुंचाता है वहाँ । जहाँ पहुंचने
के लिए । शायद हमें । कई साल गुजारने पड़ते
।
आसावरी काकड़े मराठी की अत्यंत प्रतिष्ठित
और चर्चित कवयित्री हैं । उन्होंने
चंद्रप्रकाश देवल के `बोलो माधवी'
काव्य-संग्रह का मराठी अनुवाद किया है ।
श्रेष्ठ अनुवाद के लिए साहित्य अकादमी ने
इसे सम्मानित किया है ।
आम तौर पर कविता का अनुवाद बहुत कठिन और
चुनौतीपूर्ण काम माना जाता है । साथ ही,
यह भी समझा जाता है कि किसी एक भाषा में
ही कविता प्रवाहमान होती है । परंतु,
आसावरी काकड़े ने कविता के अनुवाद की
चुनौतियाँ स्वीकार की और अनुवाद को मौलिकता
के करीबतर ले जाने में वे पूर्णत: सफल रही
हैं । साथ ही, मराठी और हिंदी में समान
रूप से अभिव्यक्त हो कर उन्होंने यह सिद्ध
कर दिया की दो भाषाओ में मौलिक रूप से
कविताएं रची जा सकती हैं । इस संग्रह की
उनकी कविताएं हिन्दी की शैली और मुहावरों
का निर्वाह करती हुई प्रवहमान हैं । `वह
पंछी नहीं' कविता में कितनी सूक्ष्मता से
उन्होंने मनुष्य की भीतरी पहचान से हमें
रूबरू कराया है- `वह पंछी नहीं । वह तो
उड़ने की इच्छा है । जो अथाह की थाह लेने
। निकली है । खुद से उभरकर ! दरअसल । वह
अथाह को नहीं । खुद को ही । खोजने । निकल
पड़ी है!' आसावरी काकड़े छोटे-छोटे बिंबो
और कम शब्दों में जीवन की गहनतम सच्चाई को
पिरोने में बहुत कुशल हैं । लेकिन जहाँ
विस्तार देती हैं,
वहाँ कविता का एक नया संसार बस जाता है ।
काव्यमय कथात्मकता उनकी एक और विशेषता है
। एक कविता का तो शीर्षक ही रखा गया है -
`एक कहानी' । मूल रूप से जीवन के विविध
रूपों, आयामों और छटाओ को रुपायित कर
आसावरी काकड़े ने स्थितियों, स्वभावों,
विश्लेषणों
का रेशा-रेशा चुनकर रचनाओ का ताना-बाना
बुना है । फिर एक यथार्थ-दर्शन उभर उठता
है - `नदी की तरह । नहीं होते हम कि समेट
लें । अपने भीतर । किसी भी प्रवाह को । जब
भी मिले... । तभी तो । अजनबी ही रह जाते
हैं हम । एक-दूसरे के लिए । पड़ौसी राज्य
की । भाषा की तरह...!
मनुष्य और प्रकृति के बीच पुल का
प्रतिनिधित्व करने वाली उनकी कविताएं जीवन
के केलिडोस्कोप की तरह हर क्षण एक नये
आयाम से हमारा परिचय कराती हैं । ये
कविताएं भीतर की भावुकता, संवेदनशीलता की
यात्रा तो करवाती ही हैं, साथ ही,
बाह्य-जगत् की असलियत से भी मिलवाती हैं ।
मनुष्य के मन की अतल गहराइयों में छिपे
संसार का वे उदघाटन करती हैं और भीतर दबी
स्थितियों से साक्षात्कार करवाती हैं ।
उनकी कविताएं मनुष्यता की यात्रा में स्वयं
को जानने-समझने के माध्यम के रूप में उभरती
हैं । आज अखबारों की घटनाएं, रचनाओं में
घुसपैठ कर रही हैं । कविता कभी दुरुहता पर
सवार हो कर खंडित प्रवाह बन जाती है ।
नवीनता के नाम पर जीवन से छिटकी कविताएं
पाठकों तक नहीं पहुंच पाती । ऐसे में
आसावरी काकड़े की कविताएं जीवन की विविध
छटाओं को अपने भीतर समेटकर, मनुष्यता की
गंध पिरोकर सरल, स्वाभाविक अभिव्यक्ति से
हमें अपनी संवेदनाओं से मिलवाती हैं ।
इसीलिए ये कविताएं पाठकों की अपनी कविताएं
हैं ।
`इसीलिए शायद' इस कवितासंग्रह में
संग्रहित कविताएं १९९७ से २००९ के बीच रची
गई हैं । १२ वर्षो के अंतराल की यह
काव्य-यात्रा अपने आप में विशिष्ट है ।
इसमें आसावरी काकड़े के शिल्प और
अभिव्यक्ति की यात्रा को भी देखा जा सकता
है । छोटे-छोटे हायकू गागर में सागर के
रूप में हैं । यथा- `औरत सोती । लपेट के
दामन । पहेली जैसी !' और `बादल घिरे ।
आसमान सतर्क । औरत नम ।' या `गरजते बादल ।
बरसने को है बरखा । घरौंदे चौकन्ने से...'
इन छोटी-छोटी अभिव्यक्तियों में उनकी गहनता
देखी जा सकती है । फिर देह, सेहत और `मैं'
का सुंदर विश्लेषण भी काव्य रूप ले लेता
है । पीले पत्तों के माध्यम से उनका दर्शन
कई बार, कई अर्थों और संदर्भों में उजागर
हुआ है । हर बार एक नई छटा लेकर आती हैं
कविताएं... `चाह' शीर्षक से वे कहती हैं -
`न जाने क्या हुआ । एक पीला पत्ता । गिरते
। गिरते । तितली बन गया । शान से झिलमिलाने
लगा । और फिर उड़ते... उड़ते... दूसरे पीले
पत्तों को । राह दिखाने । जुगनू बन गया...!
आसावरी काकड़े की कविताएं आशावादी हैं ।
मनुष्य के भीतर के पराजित क्षणों को संवार
कर एक नया कोण वे प्रस्तुत करती हैं । उनकी
शैली में सहज बयानी है । इससे पहले उनके
दो हिंदी कवितासंग्रह प्रकाशित हो चुके हैं `मौन
क्षणों का अनुवाद' और `मेरे हिस्से की
यात्रा'. `इसीलिए शायद' में उनकी रचनाएं
एक विशिष्ट ऊंचाई छूती हैं । काव्य-यात्रा
का उनका यह संवेदनशील पड़ाव उनकी अगली
यात्रा का संकेत भी है कि संग्रहों के साथ
वे किस तरह जीवन के अनछुए पहलुओं को कितनी
सटीकता से चित्रात्मकता सौंपती हैं । पाठक
आसावरी काकड़े की कविताओं में अपनी
कलात्मक अनुभूतियों को प्रतिध्वनित होते
देखते हैं, कविताओं की सबसे बड़ी सफलता
भी यही है । |
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